Saturday, November 3, 2018

अपनी ही कसौटी के कठघरे में खड़े राहुल गांधी अपने गिरेबान में झांके।

पिछले कुछ महीनों से राहुल गांधी ने रिलायंस को 30 हज़ार करोड़ का ठेका देने का राग बार बार लगातार अलापा। लेकिन जब राफेल विमान बनाने वाली कम्पनी दसां के CEO द्वारा दस्तावेज़ दिखाते हुए स्पष्ट कहा गया कि राफेल के ऑफसेट के ठेके (30 हज़ार करोड़ रुपए) के एक हिस्से (850 करोड़) की 50% साझेदारी (425 करोड़ रुपये) रिलायंस को दी गयी है। तो राहुल गांधी ने फतवा जारी कर दिया कि दसां का CEO झूठ बोल रहा है। हालांकि अपने इस फतवे के पक्ष या समर्थन में राहुल गांधी ने आजतक एक छोटा सा भी सबूत या तथ्य देश के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया है।

अपने उपरोक्त फतवे के समर्थन में राहुल गांधी की सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि रिलायंस को जब अनुभव ही नहीं था तो दसां ने उसको ठेका क्यों दिया.? अपने इस प्रश्न को आधार बनाकर राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर लगातार आरोप जड़ा है कि रिलायंस को फायदा पहुंचाने के लिए मोदी ने दसां पर दबाव डालकर रिलायंस को ठेका दिलवाया है।

लेकिन अनुभव की कसौटी पर रिलायंस को खोटा सिद्ध करने की राहुल गांधी की कोशिश ने खुद राहुल गांधी को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है। क्योंकि इस कसौटी के अनुसार राहुल गांधी से देश यह जानना चाहता है कि देश के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर रहे राहुल गांधी को किसी प्रादेशिक सरकार चलाने का भी अनुभव नहीं है। राहुल गांधी ने एक दिन के लिए भी केंद्र सरकार के किसी मंत्रालय के मंत्रिपद तक की जिम्मेदारी कभी नहीं सम्भाली है। रिलायंस के अनुभव को लेकर सवाल उठा रहे राहुल गांधी तथा राहुल गांधी के चाटुकारों को यह याद दिलाना जरूरी है कि कांग्रेस में एक दर्जन से अधिक ऐसे नेता हैं जिन्हें सरकार चलाने का लम्बा अनुभव है और वो राहुल गांधी से कई गुना अधिक अनुभवी भी हैं, परिपक्व भी हैं। अतः कांग्रेस ऐसे अनुभवी परिपक्व नेताओं को हाशिये पर डालकर राहुल गांधी को प्रधानमंत्री क्यों बनाना चाहती है।

राहुल गांधी की ही कसौटी के अनुसार... कांग्रेस की ऐसी कोशिशों को देश के लोकतांत्रिक/राजनीतिक इतिहास का सबसे बड़ा और शर्मनाक घोटाला क्यों नहीं माना जाए.?

सिर्फ प्रधानमंत्री पद पर ही नहीं बल्कि कांग्रेस के  राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी की नियुक्ति भी उन अनुभवी कांग्रेस नेताओं की शर्मनाक उपेक्षा/अनदेखी कर के ही की गयी।

राहुल गांधी तथा राहुल गांधी के चाटुकारों को अगर याद नहीं हो तो वो याद करें इन वर्तमान कांग्रेसी दिग्गजों को जो राहुल गांधी से कई गुना अधिक अनुभवी एवं परिपक्व हैं।

यह हैं ऐसे कुछ नाम...

गुलाम नबी आजाद 15 साल केन्द्र सरकार में कैबिनेट मंत्री 3 साल राज्यमंत्री। 38 साल लम्बे संसदीय जीवन का अनुभव।

एके एंटोनी 6 साल केरल के मुख्यमंत्री, 9 साल केन्द्र सरकार में कैबिनेट मंत्री। 20 साल लम्बे विधायी तथा 10 साल लम्बे संसदीय जीवन का अनुभव।

अशोक गहलोत 10 साल मुख्यमंत्री, 6 साल कैबिनेट मंत्री। 19 साल विधायी व 17 साल लम्बे संसदीय जीवन का अनुभव।

पी चिदंबरम 12 साल केन्द्र सरकार में कैबिनेट मंत्री 33 साल लम्बे संसदीय जीवन का अनुभव।

वीरप्पा मोइली 20 साल केन्द्र सरकार में कैबिनेट मंत्री 38 साल लम्बे संसदीय जीवन का अनुभव।

कमलनाथ 20 साल केन्द्र सरकार में कैबिनेट मंत्री। 38 साल लम्बे संसदीय जीवन का अनुभव।

सलमान खुर्शीद 15 साल केन्द्र सरकार में कैबिनेट मंत्री। 15 साल लम्बे संसदीय जीवन का अनुभव।

व्यालार रवि 08 साल केन्द्र सरकार में कैबिनेट मंत्री। 38 साल लम्बे संसदीय जीवन का अनुभव।

जीके वासन 9 साल केन्द्र सरकार में कैबिनेट मंत्री। 12 साल लम्बे संसदीय जीवन का अनुभव।

श्रीप्रकाश जायसवाल 10 साल केन्द्र सरकार में कैबिनेट मंत्री। 15 साल लम्बे संसदीय जीवन का अनुभव।

आनन्द शर्मा 10 साल केन्द्र सरकार में कैबिनेट मंत्री। 30के साल लम्बे संसदीय जीवन का अनुभव।

कपिल सिब्बल 10 साल केन्द्र सरकार में कैबिनेट मंत्री। 20 साल लम्बे संसदीय जीवन का अनुभव।

जयराम रमेश 5 साल केन्द्र सरकार में कैबिनेट मंत्री। 12 साल लम्बे संसदीय जीवन का अनुभव।

सुशील शिंदे 1 साल मुख्यमंत्री व 9 साल केन्द्र सरकार में कैबिनेट मंत्री।  20 साल लम्बे विधायी व 12 साल लम्बे संसदीय जीवन का अनुभव।

भूपेंद्र हुड्डा 10 साल मुख्यमंत्री। 14 साल लम्बे विधायी तथा 12 साल लम्बे संसदीय जीवन का अनुभव।

Thursday, August 23, 2018

1762 महिलाओं की जब मॉब लिंचिंग हुई... तब खामोश क्यों थे कांग्रेसी वामपंथी सपाई बसपाई.?


साढ़े 4 वर्ष पूर्व, अर्थात देश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सत्तारूढ होने से पहले के 10 वर्षों के दौरान देश में भीड़ द्वारा की गई हत्याओं (मॉब लिंचिंग) के आपराधिक इतिहास पर संक्षिप्त दृष्टिपात मात्र से कांग्रेस और वामपंथियों सरीखे उसके कुछ सहयोगी दलों के साथ ही साथ मीडिया के एक वर्ग विशेष ( विशेषकर न्यूजचैनलों) द्वारा मॉब लिंचिंग के नाम पर किया जा रहा देशव्यापी हंगामा, हाहाकार शत प्रतिशत संदेहास्पद और षड्यंत्रकारी प्रतीत होता है।
2015 में राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी किए गए एक आंकड़ें के अनुसार वर्ष 2005 से वर्ष 2014 तक की 10 वर्ष की समयावधि में देश में 1762 ऐसे बर्बर हत्याकांड हुए थे जिनमें किसी महिला को भीड़ ने टोना, टोटका, काला जादू, करने वाली चुड़ैल घोषित कर के मौत के घाट उतार दिया गया था।
यह आंकड़ा बताता है कि उन 10 वर्षों के दौरान अंधविश्वासी भीड़ प्रतिवर्ष औसतन 176 महिलाओं को मौत के घाट उतार रही थी।
उल्लेखनीय है कि इन 10 वर्षों की समयावधि में से साढ़े 9 वर्षों तक केन्द्र में कांग्रेसी गठबन्धन वाले यूपीए की मनमोहन सरकार का शासन था। 
2005 से 2008 तक की 4 वर्ष की समयावधि में वामपंथी खेमा भी उस यूपीए गठबन्धन का प्रमुख सदस्य था। उस दौरान ऐसे बर्बर हत्याकांडों के प्रति कांग्रेस कितनी संवेदनशील और सजग थी यह इस एक उदाहरण से भी समझा जा सकता है कि वर्ष 2013 में देश में 160 ऐसे बर्बर हत्याकाण्ड हुए थे। इनमें से 54 हत्याएं केवल झारखण्ड राज्य में हुईं थीं। उल्लेखनीय है कि 2013 में झारखण्ड में कांग्रेस और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की गठबन्धन सरकार का शासन था। केन्द्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाले कांग्रेसी यूपीए की सरकार का शासन था।
वर्ष 2013 से संबंधित उपरोक्त आंकड़ें अपवाद मात्र नहीं हैं। 2005 से 2014 तक देश में किसी महिला को चुड़ैल घोषित कर के उसकी बर्बर हत्या करने की सर्वाधिक (372) घटनाएं झारखण्ड में ही हुईं। ऐसी घटनाओं के मामलों में 37 हत्याएं प्रतिवर्ष के औसत के साथ लगातार 10 वर्षों तक झारखण्ड देश में पहले नम्बर पर रहा। उल्लेखनीय यह भी है कि इन 10 वर्षों के दौरान केन्द्र में लगातार कांग्रेस की ही सरकार थी तथा झारखण्ड में भी इस दौरान लगभग साढ़े 6 वर्षों तक कांग्रेसी गठबन्धन की ही सरकार थी।
यहां उल्लेख आवश्यक है कि उन 10 वर्षों के दौरान जिन 1762 महिलाओं को चुड़ैल घोषित कर के उनकी निर्मम बर्बर हत्या कर दी गयी थी उनमें से एकाध अपवाद को छोड़कर शत प्रतिशत महिलाएं या तो पिछड़ी आदिवासी जनजाति समुदाय की थीं या फिर दलित समुदाय की।
अतः आज जब कांग्रेस और उसके गठबन्धन सहयोगियों की फौज तथा मीडिया का एक वर्ग विशेष यह आरोप लगा रहा है कि पिछले साढ़े 4 वर्षों के दौरान गौरक्षा के नाम पर भीड़ द्वारा की गयी 30 तथाकथित गौतस्करों/गौकशों की हत्याओं में जो लोग मारे गए उनमें से लगभग 87% लोग मुसलमान थे। इसलिए यह हत्याएं कोई सामान्य आपराधिक घटनाएं नहीं हैं। अतः इस फौज को अब इस सवाल का भी जवाब देना चाहिए कि उन 1762 आदिवासी जनजाति व दलित समुदाय की महिलाओं की हत्याएं क्या सामान्य आपराधिक घटनाएं थीं.? अगर नहीं थीं तो अंधविश्वासी भीड़ द्वारा आदिवासी जनजाति और दलित समुदाय की उन पौने दो हज़ार महिलाओं की सरेआम पीट पीटकर की गई बर्बर हत्याओं पर कांग्रेस और उसके गठबन्धन सहयोगियों की फौज तथा मीडिया का एक वर्ग विशेष 10 वर्षों तक मरघटी मौन क्यों साधे रहा था.? क्या यह मौन इसलिए साधा गया था, क्योंकि देश में कांग्रेस की सरकार थी.? या फिर उसकी दृष्टि में 1762 आदिवासी जनजाति व दलित समुदाय की महिलाओं की हत्याओं से ज्यादा दुःखद और महत्वपूर्ण हैं 26 मुसलमानों की हत्याएं.?
30 तथाकथित गौतस्करों की हत्याओं पर आजकल संसद, सड़क और मीडिया मंचों पर ताण्डव कर रही कांग्रेस और उसके गठबन्धन सहयोगियों की फौज तब चुप क्यों थी जब 10 वर्षों तक लगातार प्रतिवर्ष औसतन 176 महिलाओं को चुड़ैल घोषित कर के अंधविश्वासी भीड़ द्वारा बर्बरतापूर्वक मौत के घाट उतारा जा रहा था। तब 10 वर्षों तक यह गठबन्धन क्यों खामोश था.?
कुछ ऐसे गम्भीर सवाल हैं जो आजकल मॉब लिंचिंग के नाम पर संसद और मीडिया मंचों पर अपने साथियों सहयोगियों के साथ जबरदस्त हंगामा कर रही, हाहाकार मचा रही कांग्रेस के पाखण्ड की धज्जियां उड़ा देते हैं। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती।
वर्ष 2001 से 2004 तक के 4 वर्षों के दौरान अंधविश्वासी भीड़ द्वारा प्रतिवर्ष मौत के घाट उतारी जानेवाली महिलाओं की औसत संख्या 132 थी। जो कांग्रेसी यूपीए के शासनकाल के दौरान औसतन प्रतिवर्ष होती रहीं ऐसी हत्याओं से 44 (लगभग 34%) अधिक है। यूपीए शासनकाल में महिलाओं की मॉब लिंचिंग की घटनाओं में एक तिहाई से अधिक की वृद्धि क्यों हुई.?

Tuesday, August 21, 2018

सिद्धू और कांग्रेस सरासर सफेद झूठ बोल रहे हैं। देश की आंखों में धूल झोंक रहे हैं।

सिद्धू की पाकिस्तान यात्रा को एक दोस्त के निमंत्रण पर दूसरे दोस्त सिद्धू द्वारा की गयी यात्रा बता रही है कांग्रेस। यही राग सिद्धू भी अलाप रहा है।
अब जानिये जरा कि इमरान खान का कितना बड़ा दोस्त है सिद्धू।
जिस मुश्ताक मुहम्मद की अंगुली पकड़कर उसकी कप्तानी में इमरान खान अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट की ऊंचाइयों तक पहुंचा। उसके बाद जिन आसिफ इकबाल और ज़हीर अब्बास की कप्तानी में इमरान खान बरसों तक खेला। उन तीनों को अपने शपथ ग्रहण में इमरान खान ने ना बुलाया, ना ही वो तीनों उसके शपथग्रहण में गए। अपने 21 बरस लम्बे क्रिकेट कैरियर में इमरान खान जिन खिलाड़ियों के साथ खेला उनमें से केवल 4 पाकिस्तानी खिलाड़ी, मियांदाद, वसीम अकरम, वकार यूनुस, आकिब जावेद ही उसके शपथग्रहण में गए थे।
पूरी दुनिया से कोई क्रिकेट खिलाड़ी उसके शपथग्रहण में शामिल नहीं हुआ, सिवाय सिद्धू के। क्या इमरान खान का इतना बड़ा और ख़ास दोस्त है सिद्धू.?
इसका जवाब मेरे यह कुछ सवाल दे देते हैं।
कांग्रेस और विशेषकर सिद्धू को यह बताना चाहिए कि उसके इतने घनिष्ठ दोस्त इमरान खान ने एक के बजाय तीन शादियां कीं हैं, पर उसने अपने पक्के दोस्त सिद्धू को उन तीनों शादियों में कभी क्यों नहीं बुलाया था.?
इमरान खान अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि जिस कैंसर अस्पताल को बताता है उसके उदघाटन के शानदार जश्न में उसने अपने घनिष्ठ दोस्त सिद्धू को क्यों नहीं बुलाया था.? जबकि उस जश्न में उसने दुनिया भर के कई खिलाड़ियों को बुलाया था।
सिद्धू यह भी बताए कि उसने अपनी खुद की शादी में अपने घनिष्ठ मित्र इमरान खान को क्यों नहीं बुलाया था.? उसकी शादी में इमरान खान क्यों नहीं आया था.?
यही नहीं सिद्धू के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि उसका मंत्री बनना था। सिद्धू ने अपनी उस उपलब्धि के उस जश्न में शामिल होने का निमंत्रण इमरान खान को क्यों नहीं दिया था.? इमरान खान उसके शपथग्रहण में क्यों नहीं आया था.?
,दरअसल अपने क्रिकेट जीवन के शिखर के दौरान इमरान खान अत्यन्त अहंकारी और बदमिजाज इन्सान के रूप में कुख्यात हुआ करता था। उस दौर के अनेक पाकिस्तानी/अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटरों ने अपनी किताबों में बहुत विस्तार से इसपर लिखा भी है। यही कारण है कि उस दौर के उसके साथी रहे केवल 4 पाकिस्तानी क्रिकेटर उसके जश्न में शामिल हुए तथा शेष दुनिया का कोई क्रिकेटर शामिल नहीं हुआ।
ध्यान रहे जिस दौर में इमरान खेलता था उस दौर में सिद्धू औसत दर्जे का वह क्रिकेटर था जो भारतीय टीम में कभी स्थायी जगह नहीं पाया और लगातार अंदर बाहर होता रहता था।
अतः वेंगसरकर और श्रीकांत सरीखे जिन भारतीय कप्तानों के साथ क्रिकेट के मैदान में दर्जनों बार इमरान खान ने हाथ मिलाए, उनके साथ बरसों तक वह खेला भी लेकिन इन खिलाड़ियों के बजाय औसत दर्जे के खिलाड़ी सिद्धू के साथ उसकी ऐसी कौन सी गहरी दोस्ती कब हो गयी थी.?
दअरसल भारत में घुसपैठ करने के लिए पाकिस्तानी फौज जिसतरह आतंकियों को कवर फायर देती है, ठीक उसी तरह सिद्धू को कवर फायर देने के लिए ही इमरान खान ने कपिलदेव और गावस्कर को भी निमंत्रण भेज दिया था। हालांकि वह भलीभांति जानता था कि यह दोनों ही नहीं आएंगे क्योंकि उसने जब कैंसर अस्पताल के लिए चंदा मांगा था तब कपिलदेव ने उसको मुंहतोड़ जवाब दिया था और गावस्कर ने भी अंगूठा दिखाया था।
इसलिए यह जान समझ लीजिए कि इमरान और सिद्धू की कोई दोस्ती कभी नहीं रही। दोनों एकदूसरे के दोस्त कभी नहीं रहे। दोनों की दोस्ती के फ़र्ज़ी दावे की नकाब में सिद्धू वहां कांग्रेस का दूत बनकर ही गया था।
सिद्धू की पाकिस्तान यात्रा और वहां उसकी करतूतों के पक्ष और समर्थन में खुलकर खड़े होकर कांग्रेस ने स्थिति को शीशे की तरह साफ कर दिया है।

Wednesday, July 25, 2018

कूड़ा खरीदने के लिए कांग्रेस ने 14 हज़ार करोड़ रूपये क्यों खर्च किये थे.?


फ्रांस द्वारा भारत को उपहार स्वरूप निशुल्क दिए गए 32 जगुआर युद्धक विमान तथा 2 मिराज युद्धक विमान की खबर पर कांग्रेसी नेताओं प्रवक्ताओं की पहली प्रतिक्रिया यह आयी कि फ्रांस ने जो जहाज दिए हैं वो 30-35 साल पुराने हैं और कूड़े में फेंक देने लायक हैं।
मैँ कांग्रेसी नेताओं प्रवक्ताओं की बात से सहमत होते हुए उनसे केवल यह जानना चाहता हूं, और केवल मैं ही नहीं पूरा देश उनसे यह जानना चाहेगा कि...
फ्रांस द्वारा भारत को दिए गए 30-35 वर्ष पुराने कूड़े सरीखे 34 युद्धक विमानों के लिए भारत ने तो एक पैसा नहीं दिया। उसे यह जहाज मुफ्त में मिले। अतः देश का तो कोई नुकसान नहीं हुआ लेकिन कांग्रेस यह बताए कि 2013 में उसकी सरकार ने एक 31 वर्ष पुराने युद्धक जलपोत को 230.30 करोड़ डॉलर (तब के अनुसार 14,227 करोड़ रूपये) में क्यों खरीदा था.? क्योंकि कांग्रेस के ही अनुसार यदि 30-35 वर्ष पुराने जगुआर और मिराज विमान कूड़े में फेंक दिए जाने लायक हैं तो फिर 31 वर्ष पुराना विमान वाहक जलयान एडमिरल गोर्शकोव भी कूड़े में फेंक देने लायक ही रहा होगा।
मोदी सरकार ने तो कूड़ा मुफ्त में प्राप्त किया लेकिन कांग्रेस ने देश के खजाने से 14 हज़ार करोड़ से ज्यादा रुपये खर्च कर के कूड़ा खरीदा था।
मोदीराज और कांग्रेस राज में यही फर्क है...!!!
एडमिरल गोर्शकोव की खरीद से सम्बन्धित खबर की पुष्टि इस लिंक को क्लिक कर के पढ़िए। 974 मिलियन डालर का सौदा 2.35 बिलियन डालर में किया 

Saturday, June 16, 2018

पराक्रमी सरकार और पेशाबी सरकार में यह फर्क होता है


अक्टूबर 2014 में देवेन्द्र फड़नवीस ने जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली थी उस समय (2015 की गर्मियों) में विदर्भ समेत महाराष्ट्र के सूखा पीड़ित क्षेत्रों के हज़ारों गांवों में 6140 टैंकरों द्वारा पानी की आपूर्ति होती थी। इसबार (2018 में) समाप्ति की ओर बढ़ रहे गर्मी के इस पूरे मौसम के दौरान पूरे महाराष्ट्र के सभी गांवों में पानी की आपूर्ति के लिए केवल 152 टैंकरों की जरूरत पड़ी। तीन वर्षों में टैंकरों से पानी की आपूर्ति 97.5% खत्म हो चुकी है। इसका मुख्य कारण मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस द्वारा शुरू किये गए जलयुक्त शिविर अभियान हैं जिसके कारण महाराष्ट्र में सदियों से हर वर्ष सूखे की विभीषका  झेलते आ रहे 12000 से अधिक गांव पिछले 3 वर्षों में जल अकाल की समस्या से सदा के लिए मुक्त हो चुके हैं। यह छोटी मोटी नहीं बल्कि ऐतिहासिक सफलता है। इसका जबरदस्त प्रचार होना चाहिए ताकि देश के अन्य क्षेत्र भी इससे प्रेरणा ले सकें।
ध्यान रहे कि अक्टूबर 1999 में महाराष्ट्र में कांग्रेस+एनसीपी गठबन्धन की सरकार बनी थी। उस गठबन्धन सरकार ने 15 साल शासन किया। उस गठबन्धन सरकार के 13 वर्ष के कार्यकाल के बाद भी विदर्भ में मौजूद रही सूखे और अकाल की विकराल समस्या के समाधान की मांग लेकर किसान जब उस गठबन्धन सरकार के तत्कालीन सिंचाई मंत्री अजित पवार के पास गए थे तो अजित पवार ने उन्हें टका से जवाब दिया था कि अगर पानी नहीं बरसा है तो..... #क्या_अपने_पेशाब_से_डैम_भर_दूं।
महाराष्ट्र समेत सारे देश में यह शर्मनाक खबर देखी सुनी और पढ़ी थी।
अतः मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने अपने परिश्रम पराक्रम से यह उदाहरण प्रस्तुत किया है कि पराक्रमी सरकार और पेशाबी सरकार में यह फर्क होता है।
लेकिन न्यूजचैनलों के लिए इतनी बड़ी उपलब्धि कोई खबर ही नहीं है।

मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस के जलयुक्त शिविर अभियान को मिली सफलता की पूरी खबर इस लिंक को क्लिक कर के पढ़िए।
https://indianexpress.com/article/cities/mumbai/water-conservation-department-data-on-jalyukta-shivar-number-of-water-tankers-in-drought-hit-villages-decline-5213786/

Friday, June 15, 2018

हीरे के सौन्दर्य की समीक्षा कोयला कर रहा है

सपा बसपा कांग्रेस और न्यूजचैनली मीडिया के "चटपटे फास्टफूड" सरीखे एंकरों एडीटरों एवं लाल बुझ्झकड़ी विश्लेषकों की फौज आजकल एक ही राग अलाप रही है कि मोदी सरकार ने 4 साल में और योगी सरकार सरकार ने एक साल में कोई काम ही नहीं किया।
आइए सच्चाई जानने का प्रयास करते हैं।
2012 में उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान में सपा ने किसानों का 50 हज़ार रुपये का कर्ज माफ करने का वायदा किया था। इसमें ना तो कोई शर्त जोड़ी थी, ना ही कोई शर्त बताई थी। लेकिन सरकार बनने के 8 माह बाद 23 नवम्बर 2014 को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कर्ज़ माफ़ी की घोषणा इस शर्त के साथ की थी कि यह कर्जमाफी व्यवसायिक बैंकों के कर्ज पर लागू नहीं होगी। अखिलेश सरकार की इस शर्त के बाद पूरे प्रदेश के किसानों का मात्र 1,650 करोड़ का कर्ज माफ किया गया था। यह कर्ज़ भी एक साथ माफ नहीं किया था। 1,650 करोड़ के कर्ज माफ करने के लिए सरकार ने पहले वर्ष के बजट में मात्र 500 करोड़ रूपयों का प्रावधान किया गया था। अखिलेश ने इस कर्ज़ माफ़ी से लगभग 7 लाख किसानों को लाभ पहुंचाने का दावा किया था।
लेकिन 19 मार्च 2017 में उत्तरप्रदेश में सरकार बनने के मात्र 15 दिन बाद 4 अप्रैल 2017 को योगी सरकार ने किसानों का 36,000 करोड़ का कर्ज माफ कर दिया था। इससे प्रदेश के लगभग 2 करोड़ किसानों को लाभ पहुंचा। पर हास्यास्पद विडम्बना देखिए कि वही अखिलेश यादव आज कह रहा है कि योगी सरकार ने कर्ज़माफी के नाम पर किसानों के साथ धोखा किया, किसानों के लिए कोई काम नहीं किया। इससे बड़ी विडम्बना यह कि अखिलेश यादव के इस आरोप पर न्यूजचैनली मीडिया आजकल बेसुध होकर झूम रहा है।
यह कुछ ऐसी स्थिति है जैसे कि हीरे के सौन्दर्य की समीक्षा कोयला कर रहा हो।
अखिलेश यादव सरकार द्वारा मात्र 1,650 करोड़ के कर्ज की सशर्त माफ़ी के समाचार का लिंक
https://www.bbc.com/hindi/india/2012/11/121122_farmer_loan_waiver_pa

योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा 36,000 करोड़ की कर्जमाफी के समाचार का लिंक
https://www.patrika.com/unnao-news/public-likes-bjp-kisan-karj-maaf-in-unnao-news-in-hindi-1545558/

बहुत कुछ पाने के लिए बहुत कुछ छोड़ना भी पड़ता है।

बहुत कुछ पाने के लिए बहुत कुछ छोड़ना भी पड़ता है।
बात 70 के दशक के शुरुआती वर्षों की है। 1969 में सुपरहिट फिल्म आराधना की सफलता के साथ मनोरंजन की दुनिया में ध्रुव तारे की तरह चमके राजेश खन्ना के फिल्मी करियर में आराधना के साथ ही साथ दो रास्ते इत्तेफ़ाक़ डोली और खामोशी सरीखी सुपरहिट फिल्मों का नाम जुड़ चुका था।
उस समय तक एकमात्र एकछत्र सुपरस्टार राजेश खन्ना के विषय में यह मशहूर हो चुका था कि उनदिनों सफलता उनके सिर पर चढ़कर बोलती थी। उनका अहंकार अपने चरम पर हुआ करता था। उसी दौर में 1970 में राजेश खन्ना को पता चला कि निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी अपनी एक बहुत छोटे बजट की फ़िल्म को लेकर नायक की तलाश कर रहे हैं। लेखक गुलज़ार के माध्यम से राजेश खन्ना को फ़िल्म की कहानी पता चली थी। कहानी सुनने के बाद राजेश खन्ना ने ऋषिकेश मुखर्जी के ऑफिस पहुंचकर उनसे कहा था कि ऋषि दा यह फ़िल्म तो मैं ही करूंगा। यह सुनकर ऋषि दा ने राजेश खन्ना से कहा था कि मेरी फ़िल्म बहुत छोटे बजट की है इसलिए मेरी तीन शर्ते हैं। पहली शर्त यह कि तुमको केवल एक लाख रूपये दूंगा (उनदिनों राजेश खन्ना की फीस 8 लाख रूपये हुआ करती थी) दूसरी शर्त यह कि तुम्हें अपनी बहुत सारी डेट्स एक साथ देनी होंगी। तीसरी यह कि तुम्हें शूटिंग पर टाइम से पहुंचना होगा।
ऋषि दा की इन तीनों शर्तों के जवाब में राजेश खन्ना ने अपनी डायरी निकाल कर उनके सामने रखते हुए कहा था कि दादा जो और जितनी डेट्स चाहिए अपने हाथ से लिख दीजिये। मैं और लोगों को मैनेज कर लूंगा। एक लाख रूपये की मेरी फीस भी फाइनल और शूटिंग पर समय से भी पहुंचूंगा। दोनों के बीच डील फाइनल हुई और फ़िल्म बनना शुरू हुई।
वो ऐसी फ़िल्म बनी कि आज 47 साल बाद भी दुनिया भर की 47 लाख से अधिक फिल्मों के सबसे बड़े ऑन लाइन संग्रह #IMDB (Internet Movie Database,) की सर्वाधिक लोकप्रिय भारतीय फिल्मों की सूची में उस फिल्म का नाम पहले नम्बर पर है। उस फिल्म का नाम है #आनंद।
सम्भवतः समय बीतने के साथ राजेश खन्ना की अन्य सुपरहिट फिल्में धीरे धीरे अपनी चमक खोती गईं और उनकी चमक धीरे धीरे कम ही होती जाएगी। लेकिन 47 वर्ष बाद भी IMDB की लोकप्रियता सूची में पहले स्थान पर बनी हुई आनंद यह बताती है कि जबतक हिन्दी फिल्मों का दौर चलेगा तबतक आनंद और राजेश खन्ना भी जिंदा रहेंगे।
फ़िल्म आनंद लोकप्रियता का ऐसा इतिहास रच देगी यह तो राजेश खन्ना ने भी नहीं सोचा होगा लेकिन फ़िल्म की कहानी और ऋषि दा की काबिलियत पर तो उनको विश्वास था ही इसीलिए उस समय के उस परम लोकप्रिय, चरम अहंकारी सुपरस्टार ने भी आनंद फ़िल्म के लिए अपने प्रचण्ड अहं को भी पूरी तरह मार दिया था।
आज उपरोक्त प्रसंग का जिक्र इसलिए किया क्योंकि उपरोक्त प्रसंग यह सन्देश देता है कि यदि जीवन में कुछ विशेष विशिष्ट और विलक्षण प्राप्त करना है तो बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है, जैसे कि राजेश खन्ना सरीखे व्यक्ति ने आनंद के लिए छोड़ दिया था।
हर समय हमारे मन की ही हो यह सम्भव नहीं है।
अतः देश के प्रधानमंत्री को गली चौक चौराहों पर मदारी (हमारे मन) की रस्सी से बंधा वो बन्दर समझना बन्द करिये जो हर मोड़ हर चौराहे पर लोगों की मर्ज़ी के हिसाब से नाचता कूदता है।